Saturday, 9 October 2021

तुझे मुझसे इतनी नफ़रत है कि बर्बाद हो जाऊ

तुझे मुझसे इतनी नफ़रत है कि बर्बाद हो जाऊ
बर्बादी के बहाने ही सही, मैं तुझे याद तो आऊ

इतना मत सोचना मुझसे इंतकाम के बारे मे
कही यादों मे तेरी मैं आबाद ना हो जाऊ

तेरा जिक्र मेरी कलम से निकले हर लफ्ज़ मे होता है
काश तेरी शायरी मे मैं भी इरशाद हो जाऊ

इतना भी मत लिख देना मेरे बारे मे कही
कही तेरे हर लफ्ज़ की मैं बुनियाद ना हो जाऊ

बेतरतीब पड़ी मेज़ पर किताबे

बेतरतीब पड़ी मेज़ पर किताबे
पेंसिल किताब के बीच दबी हुई
पंखा घूम रहा अनवरत
हवा से पन्ने लहरा रहे
एकटक देख रहा है मंगल
ध्यान कही और है मंगल का
शायद कुछ सोच रहा है
शायद नया शेर या नई नज़्म कोई
शायद उसकी याद में खोया है
पर कब तक, अब बस हुआ
कला की कलम को विराम देता है
बेतरतीब पड़ी किताबों को सहजता है
वापस पेंसिल वाला पेज खोलता है
और फिरसे पढ़ने बैठ जाता है

ना चाहते हुए भी मुस्काये बैठा हूँ

कुछ बाते जहन में दबाये बैठा हूँ
ना चाहते हुए भी मुस्काये बैठा हूँ

असंतोष है कुछ कर्मो का मुझे
दिन रात वही सोचता रहता हूँ
काश! ऐसा किया होता
काश! वैसा किया होता
ऐसे कुछ विचार दोहराये बैठा हूँ

उजाले की कुछ गलतियाँ
सोच सोच कर रातों में
घूम फिर कर ख्वाबों में
में दिन का चैन और रातों का सुकून
दोनों अनमोल गवाए बैठा हू

बचपन की कुछ गलतियाँ
बाँकपन की कुछ गलतियाँ
और कुछ घिनोने राज अपने
अंधेरी तिजोरी में दबाये बैठा हूँ

बहुत से जाने-अनजाने, दोस्त-दुश्मन
जीवन में आये और खास हो गए
सबको वो अंधेरी तिजोरी दिखाई
पर अभी भी उसकी चाबी छुपाये बैठा हूँ

जुबां पर कई बार लाकर
में वो बातें सीने में दबाये बैठा हूँ

और अब तो शुभचिंतक भी बैगाना लगता है
सामने हँसने वालो को पीठ पीछे अजमाए बैठा हूँ

ऐसी बहुत सी बातें में सबसे छुपाये बैठा हूँ
दुःख होता है जब भी उनके बारे में सोचता हूँ
पर क्या करू, ना चाहते हुए भी मुस्काये बैठा हूँ

ये शायद मुमकिन नहीं

इस जीवन मे तुम मुझसे मिल पाओ
ये शायद मुमकिन नहीं
इस जीवन मे मैं खुद से मिल पाऊ
ये शायद मुमकिन नहीं

हर्फ़ दर हर्फ़ खोल रहा हूँ पन्ने अपने
और देख रहा हूँ दफ़न जो राज है मेरे
भावनाये, अहसास, हुनर, लतीफ़े
क्या क्या नहीं लिखा मटमैले पन्नो में
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी रोने लगता हूँ
कभी चीखता - चिल्लाता हूँ
कभी यादों में खोने लगता हूँ
कभी डर जाता हूँ
तो कभी चौक जाता हूँ

कितने पन्ने तो खाली पड़े है
या शायद वही सबसे ज्यादा भरे है, किसको पता?
कोशिश कर रहा हूँ उनको पढ़ने की
और उम्मीद है इस जीवन मे उनको पढ़ लूँगा
अभी नही तो शायद जीवन की आखिरी पड़ाव में ही सही
पर उम्मीद है शायद पढ़ लूँगा

पर आप निराश मत होना
अगर मैं इस जीवन मे खुद से मिल पाया
तो आपको जरूर रूबरू करूँगा

पर
इस जीवन मे तुम मुझसे मिल पाओ
ये शायद मुमकिन नहीं
इस जीवन मे मैं खुद से मिल पाऊ
ये शायद मुमकिन नहीं

किसी गुमनाम को ख्वाबो में ला मैं यूँ याद करता रहा

किसी गुमनाम को ख्वाबो में ला मैं यूँ याद करता रहा
जीवन अपना संग उसके बिताने के सपने बुनता रहा

नाम पता न शक्ल सूरत कुछ भी न ज्ञात मुझको
फिर भी मैं तन्हाई में बैठा आवाज उसकी सुनता रहा

कही नींद से जाग न जाऊ और हसीन ख्वाब ये टूट न जाये
कही साथ उसका न खो दु इसलिए मैं नींद में भी डरता रहा

सूरत से अनजान उसकी तस्वीर में उसको कैसे सजाऊ
तस्वीर उसकी शब्दो से मेरे कविता में मेरी रचता रहा

प्रियतम मेरी लौट आओ तुम

थक गया हूँ झूट बोल बोलकर
अब और नही बोला जाता
प्रियतम मेरी लौट आओ तुम
अब दर्द नही झेला जाता

फीकी मुस्कान अब चेहरे पर
कब तक और रखनी पड़ेगी
चिंतन लकीर अब ललाट की
कब तक और ढकनी पड़ेगी
कब तक भौंहे तान तान
मैं आँसू कैद कर पाउँगा
कब तक रातें जाग जाग
मैं तेरी याद भुलाऊँगा
जिस खेल में मैं हर रोज़ हारू
वो खेल नही खेला जाता
प्रियतम मेरी लौट आओ तुम
अब दर्द नही झेला जाता

पूजा पाठ ध्यान अध्यात्म
सब करके मैंने छोड़ दिये
चाहे अनचाहे ख्वाब तेरे
मैन नींदों से मोड़ दिए
कम से कम अब मन को मैं
ये विश्वास रोज़ दिलाता हूँ
ये रात आखिरी जब याद तू आयी
ये कसमे रोज़ मैं खाता हूँ
रूह से कब तक सच छुपाऊ
अब झूट नही बोला जाता
प्रियतम मेरी लौट आओ तुम
अब दर्द नही झेला जाता

दोस्त मेरे जब हाल पूछते
सबको मदमस्त दिखलाता हूँ
ज़हन में दर्द अनेक भरे है
हँस के सारे छुपाता हूँ
वो जानता है मुझे बचपन से
उससे मिलने कैसे ना जाऊ
यार मेरा पहचान गया
अब उससे सच कैसे छुपाऊ
आँख मिलाके झूट बोलता
तो मन मेरा मैला जाता
प्रियतम मेरी लौट आओ तुम
अब दर्द नही झेला जाता

वसंत से मैं पतझड़ तक
दरख्तों को ताकता रहा
कलेजे में जो झलक तुम्हारी
मन ही मन भाँपता रहा
हरे से पत्तियाँ पीली हो गयी
इंतजार तुम्हारा अब भी है
एक दिन जरूर तुम आओगी
विश्वास मुझे ये अब भी है
राह तुम्हारी देख रहा हूँ
अब और नही देखा जाता
प्रियतम मेरी लौट आओ तुम
अब दर्द नही झेला जाता

रोशनी

अंधेरे कमरे में
झरोखे से आती रोशनी की किरण

मेरा चंचल मन
देखता है
सोचता है
पूछता है
क्या है ये जो
जगमगा रहा है
छटा रहा है
अंधेरे को
भर रहा है रोशनी
फैला रहा है उजाला
दिखा रहा है अनदेखा

सवाल अनगिनत
जन्म ले रहे
पूछ रहा है मन मेरा
क्या है ये
क्यों है ये
कहा से आया कैसे आया

जिज्ञासा की लहर
और प्रबल हो चली
नए दृष्टिकोण
आकार ले रहे
सोचने समझने की शक्ति
सवालो के जवाब दे रही
बंद दरवाजे खुल रहे
नए आयाम मिल रहे

एक रास्ता
आगे बढ़ने का
रोशनी के उद्गम को
ढूंढ निकलने का
मिल गया
जज्बा दौड़ उठा
लहू मे नई ऊर्जा
तैर गयी
उठ खड़ा हुआ
चल पड़ा
और फिर कभी नही रुका

कभी शौक से हमारे महखाने में वक्त गुजारने आना

कभी शौक से हमारे महखाने में वक्त गुजारने आना थोड़ी शराब पीकर खराब दिन की सूरत सुधारने आना मिजाज़ कुछ उखड़ा उखड़ा रहता है तुम्हारा अपनो से रू...