Saturday, 9 October 2021

बेतरतीब पड़ी मेज़ पर किताबे

बेतरतीब पड़ी मेज़ पर किताबे
पेंसिल किताब के बीच दबी हुई
पंखा घूम रहा अनवरत
हवा से पन्ने लहरा रहे
एकटक देख रहा है मंगल
ध्यान कही और है मंगल का
शायद कुछ सोच रहा है
शायद नया शेर या नई नज़्म कोई
शायद उसकी याद में खोया है
पर कब तक, अब बस हुआ
कला की कलम को विराम देता है
बेतरतीब पड़ी किताबों को सहजता है
वापस पेंसिल वाला पेज खोलता है
और फिरसे पढ़ने बैठ जाता है

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